January 30, 2016
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एक शीशे की इमारत हूं मैं टूट जाने के बहाने हैं बहुत

बस्तियों में दश्त का मंज़र मिला जो मिला इस शहर में बेघर मिला

न जाने क्या हुआ इन बस्तियों को हर इक मंज़र निगाहों पर गिराँ [भारी] है

ख़बर न थी उसे इन खोखली ज़मीनों की वह सिर्फ़ राह को हमवार [एकसार] देखकर ख़ुश था

सुना है वह भी भटकता रहा हमारी तरह मिला न दूर तलक कोई रास्ता उसको

राह की मोड़ में लगता है अकेला कोई कोई तुमसा न हो नज़दीक तो जाकर देखो

लबों पे घर से तबस्सुम सजा के निकलूँगा मैं आज फिर कोई चेहरा लगा के निकलूँगा

पढ़े जो गौर से तारीख के वरक हमने, आंधिओं में भी जलते हुए चराग मिले।

गुरूर हुस्न पे इतना ही कर बुरा न लगे तू सिर्फ़ हुस्न की देवी लगे खुदा न लगे

कोई मंज़िल न रास्ता महफूज़ सबको रक्खे मेरा ख़ुदा महफूज़

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